बंगाल विधानसभा चुनाव देश की राजनीति के लिए भविष्य की दिशा भी तय करेगा

बंगाल एक बार फिर चर्चा में है, बंगाल की राजनीति में बेहद उथल-पुथल है। चुनाव सिर पर हैं और ऐसा माना जा रहा है कि साल 2021 पश्चिम बंगाल का होगा। क्योंकि, पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे देश की राजनीति को प्रभावित करेंगे ,पश्चिम बंगाल चुनाव 2021 सिर्फ एक राज्य की सरकार बनाने की कवायद के लिए नहीं होगा. ये मुकाबला टीएमसी और बीजेपी के बीच सत्ता संघर्ष भी नहीं है. बंगाल चुनाव के नतीजे देश में विचारधारा की लड़ाई को नया मोड़ देंगे.
पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव बीते दस साल से सत्ता में रही तृणमूल कांग्रेस और अबकी सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के तौर पर उभरती भाजपा के लिए नाक और साख का सवाल बन गया है। 
बीते लगभग पांच दशकों में यह तीसरा मौका है जब 294 सीटों वाली इस विधानसभा के लिए होने वाला चुनाव देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सुर्खिया बटोर रहा है।
लेकिन राज्य की राजनीति में खासकर बीते लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली कामयाबी के बाद इन विधानसभा चुनावों के मौके पर नया मोड़ ला दिया है
सत्ता की प्रमुख दावेदार के तौर पर उभरी भाजपा की ओर से मिलने वाली कड़ी चुनौतियों की वजह से तृणमूल कांग्रेस प्रमुख औऱ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। ऊपर से पार्टी में बढ़ते असंतोष और बगावत ने उनकी राह और मुश्किल कर दी है। 
राजनीतिक हलकों में इसे ममता के राजनीतिक करियर का सबसे कठिन दौर माना जा रहा है। हाल तक सरकार और पार्टी में जिस नेता की बात पत्थर की लकीर साबित होती रही हो, उसके खिलाफ जब दर्जनों नेता आवाज उठाने लगे हों तो यह सवाल उठना लाजिमी है। वैसे कांग्रेस भी अंदरुनी चुनौतियों से जूझते हुए अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। यहां तक कि राज्य की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और उसकी नेता ममता बनर्जी भी पिछले कुछ महीनों में सिर्फ प्रतिक्रियात्मक राजनीति ही कर पाई हैं। यानी, ममता और उनकी पार्टी ने पिछले कुछ महीनों में शायद ही अपनी ओर से कोई ऐसी राजनीतिक चाल चली हो, जिस पर बीजेपी को मजबूरन प्रतिक्रिया देनी पड़ी हो। हो यह रहा है कि बीजेपी अपनी रणनीति तय कर रही है, उस पर कदम बढ़ा रही है और टीएमसी उसके हर कदम पर सिर्फ खिसियाहट निकालती दिख रही है। यह बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
अबकी बार भी यहां विपक्ष के पास भाई-भतीजावाद, भ्रष्ट्राचार, सिंडीकेट, कानून व्यवस्था और राजनीतिक हत्या जैसे पारंपिरक मुद्दे हैं, लेकिन इस बार असली मुकाबला ममता के बंगाली उप-राष्ट्रवाद और भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद के बीच ही होने के आसार हैं। राज्य में भाजपा के उदय के साथ ही ममता ने बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का कार्ड खेलना शुरू किया था। यही वजह है कि वे अक्सर बंगाली अस्मिता और पहचान का मुद्दा उठाती रही हैं। 
ममता अच्छी तरह जानती हैं कि वे संसाधनों के मामले में भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकतीं। इसलिए उन्होंने इस बांग्ला उप-राष्ट्रवाद को ही अपना प्रमुख हथियार बनाने का फैसला किया है। वैसे, वे पहले से ही अपने बयानों में इसका संकेत देती रही हैं। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख कई बार कह चुकी हैं कि बंगाल में बंगाली ही राज करेगा, गुजराती नहीं। बंगाल की राजनीति में CPM ने जिस तरह खुलेआम संस्थागत तरीके से बांग्लादेशियों को बंगाल में बसाने और उन्हें नागरिकता के प्रमाणपत्र हासिल करने में मदद करने का काम किया और जिस तरह पिछले 10 वर्षों में ममता बनर्जी ने वाम शासन की तुष्टीकरण की विरासत को संभाला और बढ़ावा दिया, उसे देखते हुए यह समझना आसान है, इसलिए कि पिछले 40 वर्षों में शायद ही कभी बंगाल का हिंदू अपने हिंदू अधिकारों या जीवन और संपत्ति को बढ़ते खतरे की चिंता से सड़क पर निकला हो। 
इस लिहाज से देखा जाए, तो हिंदुत्व की रणनीति बीजेपी के लिए स्वाभाविक लगती है। लेकिन बंगाल की जमीन जहां पिछले चार दशकों से ज्यादा वक्त से घोर हिंदू विरोधी राजनीति के पुरोधा सत्ता के केंद्र में रहे हों और जिनकी नीतियों के कारण बंगलादेशी घुसपैठिए देश के हर हिस्से में बस्तियां बसा चुके हों, वहां रातोंरात किसी क्रांति की उम्मीद बेमानी होगी। 
स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस, बंकिमचन्द्र चैटर्जी जैसी महान विभूतियों के जीवन चरित्र की विरासत को अपनी भूमि में समेटे यह धरती आज अपनी सांस्कृतिक धरोहर नहीं बल्कि अपनी हिंसक राजनीति के कारण चर्चा में है.लेकिन जब बात राजनीतिक दाँव पेंच से आगे निकल कर हिंसक राजनीति का रूप ले ले तो निश्चित ही देश भर में चर्चा ही नहीं गहन मंथन का भी विषय बन जाता है क्योंकि जिस प्रकार से आए दिन तृणमूल कार्यकर्ताओं की हिंसक झड़प की खबरें सामने आती हैं वो वहाँ की राजनीति के गिरते स्तर को ही उजागर करती हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि बंगाल में चाहे स्थानीय चुनाव ही क्यों न हों, चुनावों के दौरान हिंसा आम बात है ,इसी प्रकार जब वहाँ की मुख्यमंत्री बंगाल की धरती पर खड़े होकर गैर बंगला भाषी को बाहरी कहने का काम करती हैं तो वो भारत की विशाल सांस्कृतिक विरासत के आभामंडल को अस्वीकार करने का असफल प्रयास करती नज़र आती हैं. क्योंकि ग़ुलामी के दौर में जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वो बंगाल की ही धरती थी जिसने पूरे देश को एक ही सुर में बांध दिया था. वो बंगाल का ही सुर था जिसने पूरे भारत को एक ही स्वर प्रदान किया था. वो स्वर जिसकी गूंज से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलने लगी थी. वो गूंज जो कल तक इस धरती पुत्रों के इस पुण्य भूमि के प्रति प्रेम त्याग और बलिदान का प्रतीक थी वो आज इस देश की पहचान है. वो स्वर था  "वंदे मातरम" आज वो नारा हमारा राष्ट्र गीत है और इसे देने वाले बंकिमचन्द्र चैटर्जी जिस भूमि की वंदना कर रहे हैं वो मात्र बंगाल की नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र की है. दरसअल जब राजनैतिक स्वार्थ राष्ट्र हित से ऊपर होता है तो इस प्रकार के आचरण सामने आते हैं. लेकिन दीदी को समझना चाहिए कि वर्तमान राजनैतिक पटल पर अब इस प्रकार की राजनीति का कोई स्थान नहीं है. बंगाल की राजनीति वर्तमान में शायद अपने इतिहास के सबसे दयनीय दौर से गुजर रही है जहां वामदलों की रक्तरंजित राजनीति को उखाड़ कर एक स्वच्छ राजनीति की शुरूआत के नाम पर जो तृणमूल सत्ता में आई थी आज खुद उस पर सत्ता बचाने के लिए रक्तपिपासु राजनीति करने के आरोप लग रहे हैं। बंगाल की खाड़ी तक फैले इस अनूठे राज्य और यहां के लोगों की ख्याति इसकी अनूठी सभ्यता के लिए रही है लेकिन अब राज्य में शायद ही कोई दिन हो,राजनीतिक हिंसा नही हो । पश्चिम बंगाल की लोकतांत्रिक रणभूमि पर ममता बनर्जी को चुनौती दे रही भारतीय जनता पार्टी की ओर से इस शब्द का प्रयोग कुछ ज्यादा ही हो रहा है,और हो भी क्यों नहीं? सब से ज्यादा हमला उनके कार्यकर्ताओ ओर नेताओ पे हुआ है।
पश्चिम बंगाल में आरोप लगाने के लिए भाजपा के पास ठोस आधार हैं। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ तक खुलेआम राज्य की प्रशासनिक मशीनरी के राजनीतिकरण और उसके चलते राज्य में हो रही हिंसा के लिए तृणमूल कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं।
सत्ता को मिलने वाली चुनौती यथास्थितिवादियों को न वामपंथी शासन वाले दौर में रुचती थी, न अब ,दरअसल आज वहाँ प्रतिगामी एवं यथास्थितिवादी ताक़तों का परिवर्तनकामी शक्तियों के साथ सीधा संघर्ष एवं टकराव है।
भाजपा की मज़बूत उपस्थिति एवं बढ़ते जनाधार के बाद यह संघर्ष और खुले रूप से सतह पर आने लगा है। ममता की राजनीतिक ज़मीन बड़ी तेज़ी से दरकती और खिसकती जा रही है।
इसलिए बंगाल का यह चुनाव तृणमूल बनाम भाजपा मात्र दो दलों के बीच का चुनाव नहीं रह गया है बल्कि यह चुनाव देश की राजनीति के लिए भविष्य की दिशा भी तय करेगा. बंगाल की धरती शायद एक बार फिर देश के राजनैतिक दलों की सोच और कार्यशैली में मूलभूत बदलाव की क्रांति का आगाज़ करे.
( लेखक के निजी विचार है)

- पवन सारस्वत मुकलावा
कृषि एंव स्वंतत्र लेखक 
सदस्य लेखक ,मरुभूमि राइटर्स फोरम

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