त्याग और तपस्या का दूसरा नाम है किसान

किसान दिवस विशेष 23 दिसम्बर 
किसान शब्द अपने आप में बहुत ही विस्तृत ओर व्यापक है किन्तु जैसे यह शब्द सुनते ही सभी के दिमाग में एक अलग ही छवि सी बन जाती है जैसे कोई खेत में हल जोत रहा है और माथे पर चिंता की लकीरें लिए आसमान की तरफ देख रहा है ,फसलें हरीभरी होने के लिए वर्षा की पुकार कर रहा है वही किसान देश का अन्नदाता कहलाता है जिनके बगैर अन्न का एक दाना भी मिलना मुश्किल है त्याग और तपस्या का दूसरा नाम है किसान, वह जीवन भर मिट्‌टी से सोना उत्पन्न करने की तपस्या करता रहता है तपती धूप, कड़ाके की ठंड तथा मूसलाधार बारिश भी उसकी इस साधना को तोड़ नहीं पाते, किसान दिन रात मेहनत कर अपने पसीने के खेत सींचकर हमारे लिए फसल उगाता है तब जाकर हमारा पेट भर पाता है अगर फसल की पैदावार बेहतर नहीं हुई तो किसान के साथ साथ, रसोई से लेकर, देश भर में महंगाई की चर्चा शुरू हो जाती है हमारे थाली में भरा पूरा पकवान इसलिए रहता है क्योंकि किसान खलिहान में पसीना बहाता है अपने खेत की मिट्टी में खुशियों के बीज लगाकर अपने खून पसीने से सींच कर उत्पादन पैदा करता है और सारे लोगों का पेट भरता है। हमारे देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में निवास करती है जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है ,एक कहावत है कि भारत की आत्मा किसान है जो गांवों में निवास करती हैं किसान हमें खाद्यान्न देने के अलावा भारतीय संस्कृति और सभ्यता को भी सहेज कर रखे हुए हैं, यही कारण है कि शहरों की अपेक्षा गांवों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता अधिक देखने को मिलती है, किसान की कृषि ही शक्ति है और यही उसकी भक्ति है वर्तमान संदर्भ में देखे तो किसान हमारे देश में आधुनिक विष्णु के समान है वह देशभर को अन्न, फल, साग, सब्जी आदि दे रहा है लेकिन बदले में उसे उसका पारिश्रमिक तक नहीं मिल पा रहा है प्राचीन काल से लेकर अब तक किसान का जीवन अभावों में ही गुजरा है किसान मेहनत को ही अपना पेशा समझता है।
कहते है कि अगर इंसान के अंदर जोश और जज्बा हो तो वह न सिर्फ अपनी मंजिल हासिल करता है बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा का श्रोत भी बन जाता है ऐसे ही प्रेरणा का श्रोत बने हैं किसान अन्न का एक भी निवाला लेते समय क्या हम ये सोचते हैं कि अन्न उपजाने वाले हमारे अन्नदाता यानी कि किसानों का देश की प्रगति में कितना बड़ा योगदान है इसी किसानी योगदान ओर महता को देखते हुए भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा किसानों की रक्षा के लिए “जय जवान जय किसान” का भी नारा दिया गया था ओर उनका विचार था कि देश की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता और सुख-समृद्धि केवल सैनिकों और शस्त्रों पर ही आधारित नहीं बल्कि किसान और श्रमिकों पर भी आधारित है और कई प्रकार की हरित क्रांति भी चलाई गई थी जो किसानों को खेती करने की ओर अग्रसर करती हैं और फसल उगाने में उनका साहस बढ़ाती हैं।
हमारे देश में कृषि से भारत की अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक अत्यधिक रूप से प्रभाव पड़ता है क्योंकि बाजारों में अत्यधिक बिकने वाले चीजें किसानों के द्वारा ही उगाई गयी होती हैं किसान बहुत मेहनत और लगन के साथ अनाज को उगाता है और वह बाजार में बेचता है उसके बाद हम उसे अपने प्रयोग में लाते हैं किसानों को अच्छे अनाज उत्पादन के लिए बहुत कठिन कार्य एवं संघर्ष करना पड़ता है खेतों में समय समय पर खाद डालना, फसलों को पानी देना, खरपतवार निकालना, कीड़ो एंव रोगों से बचाना आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिससे कई बार किसानों की फसल खराब हो जाती है इसी सब को देखकर किसान आगे बढ़ते जाते है परंतु किसानों को उसकी सही लागत नहीं मिल पाती है क्योंकि बड़े जमींदार या अन्य उसके अनाज को कम रुपए में खरीद लेते हैं इसीलिए किसानों की स्थिति निरंतर ही दयनीय हो जाती है।
आज कल मनुष्य द्वारा पर्यावरण को हानि होने के कारण किसानों को बहुत नुकसान हो रहा है पर्यावरण खराब होने से मौसम समय के अनुसार नही चलता है, जरूरत पड़ने पर बारिश नही होती है कहीं बाढ़ आता है तो कही अकाल पड़ जाता है जिससे सभी लोगों को नुकसान तो होता ही है साथ ही साथ किसानों की फसल भी बर्बाद हो जाती है।
यह एक स्थापित तथ्य है कि विद्वत्ता और पुरातन ज्ञान के केंद्र भारत की अर्थव्यवस्था सदियों से कृषि आधारित रही है उस समय फसलों को और भूमि की उर्वरा शक्ति को नष्ट करने के लिए कृत्रिम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नामक कोई टिड्डियां नहीं थीं और न ही मिलावटी कीटनाशकों या नकली बीजों और उर्वरकों के माध्यम से निराशा की महामारियाँ फैलती थीं पर्यटन के नाम पर पर्वत श्रंखलाओं और समुद्र तटों पर युवाओं द्वारा प्रकृति और पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले प्लास्टिक और पोलीथिन का भण्डार नहीं फेंका जाता था कृषि हमारी संस्कृति का मुख्य आधार रही है। हमारे सभी प्रमुख त्यौहार फसल उत्सव के रूप में मनाये जाते है उस दौर में दूध और सब्जियाँ बहुतायत से थीं धान, दाल और गेहूं की कोई कमी नहीं थी यहां तक   कि पालतू जानवरों को भी दयालुता और उदारता के साथ खिलाया जाता था गाय पूज्य थी और समाज का हर वर्ग विकसित और प्रफुल्लित था जबकि आज का भारत अविश्वसनीय रूप से इसके विपरीत है शहरी सभ्यता के लोग किसानों की ग्रामीण पारंपरिक जीवन शैली को देहाती और पुराने जमाने की कहकर मुंह बिचकाते हैं।
साथ वर्तमान स्वरूप में देखे तो कैसा मजाक है कि स्वयं को भविष्यद्रष्टा मानने वाला राजनीतिक नेतृत्व भी स्मार्टफ़ोन पर ऐप के माध्यम से किसानों और कृषि की आय बढाने के प्रयत्न में जुटा है किसानों पर देश की राजनीतिक पार्टियां भी यही दिखाना चाहती है राजनीति किसान के मुद्दे पर आज शुरू हो रही है और किसान पर ही खत्म जिन्हें किसान शब्द का मालूम नही वह ही किसान शब्द के महान प्रखंड विद्वान बन बैठे है ओर उनके ही द्वारा शहरों में या शहरों के आसपास स्थित फार्महाउस को भी कृषि आधारित आय स्रोत माना लिया जाता है और आंकड़ों में अपनी काली कमाई सफ़ेद कर ली जाती है ओर सभी किसानों की आवश्यकता ओर समस्या इन्ही को मालूम होती है जब फ़ार्म हाउस वाले किसान माने जायेंगे, उनके हित साधन को प्राथमिकता मिलेगी, तो वास्तविक किसान समुदाय की गरीबी कौन दूर करेगा, कैसे दूर होगी यह वर्तमान का किसान शब्द के लिए बड़ा प्रश्न है
हर साल 23 दिसंबर को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह जी के जन्मदिवस पर किसान दिवस मनाया जाता है इस दिन को मनाने का उद्देश्य देश के किसानों की मौजूदा स्तिथि पर चर्चा करना और उनके विकास के लिए बड़े पैमाने पर काम करना है किन्तु राजनीति स्वार्थ से भरे तथाकथित किसान नेता किसानों की भले ओर विकास की बात करेंगे विचारणीय है किसान दिवस के दिन अर्थात मात्र एक दिन किसान हितैषी सोच रख कर नहीं बल्कि हमेशा जागरूक बनकर देश की रीढ़ की हड्डी कृषि क्षेत्र को विकसित करना होगा ,किसानों का देश की प्रगति में बड़ा योगदान है, इसलिए हमें किसानों को उचित सम्मान देना होगा ।

- पवन सारस्वत मुकलावा
कृषि एंव स्वंतत्र लेखक
बीकानेर ,राजस्थान

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पर्यावरण पर गहराता संकट, भविष्य के लिए वैश्विक चुनौती

11 सितम्बर 1893 को स्वामी विवेकानंद जी द्वारा दिया अमेरिका में ऐतिहासिक भाषण