11 सितम्बर 1893 को स्वामी विवेकानंद जी द्वारा दिया अमेरिका में ऐतिहासिक भाषण

आज ही के दिन यानी 11 सितम्बर 1893 को विश्व पटल पर भारत की पहचान बनी थी यह सम्भव युवाओं के प्रेरणास्रोत तथा आदर्श व्यक्त्वि के धनी माने जाते रहे स्वामी विवेकानंद जी के उनके ओजस्वी विचारों और आदर्शों के कारण ही हो सका था ,स्वामी जी सही मायनों में वे आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि थे,12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे स्वामी विवेकानंद जी अपने 39 वर्ष के छोटे से जीवनकाल में समूचे विश्व व भारतवर्ष को अपने अलौकिक विचारों की ऐसी बेशकीमती पूंजी सौंप गए, जो आने वाली अनेक शताब्दियों तक समस्त मानव जाति का मार्गदर्शन करती रहेगी एंव युवाओं में राष्ट्र भक्ति का संचार करती रहेगी ,वे एक ऐसे महान सन्यासी संत थे, जिनकी ओजस्वी वाणी सदैव युवाओं के लिये प्रेरणास्रोत बनी रहेगी । उन्होंने भारतवर्ष को सुदृढ़ बनाने और विकास पथ पर अग्रसर करने के लिए सदैव युवा शक्ति पर भरोसा किया, तथा युवाओं को आगे लाने के लिए प्रबल जोर दिया।
स्वामी जी ने 11 सितम्बर 1893 को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अपने ओजस्वी भाषण सभी दुनिया को अचंभित कर दिया उन्होंने ने हिन्दू धर्म पर अपने प्रेरणात्मक भाषण की शुरूआत ‘मेरे अमेरिकी भाईयों और बहनों’ के साथ की तो बहुत देर तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही। अपने उस भाषण के जरिये उन्होंने दुनियाभर में भारतीय अध्यात्म का डंका बजाया। विदेशी मीडिया और वक्ताओं द्वारा भी स्वामी जी को धर्म संसद में सबसे महान व्यक्तित्व और ईश्वरीय शक्ति प्राप्त सबसे लोकप्रिय वक्ता बताया गया । स्वामी विवेकानंद की चर्चा जब भी होती है तो अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद में वर्ष 1893 में दिए गए उनके उस ओजस्वी भाषण की चर्चा अवश्य होती है।स्वामी विवेकानंद को विश्वपटल पर पहचान शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन से मिली। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। ये सम्मेलन उनकी पहचान बन गया क्योंकि उन्हें वहां बोलने के लिए सबसे कम समय दिया गया था लेकिन पहले ही वाक्य बोलने के बाद उनके सम्मान में काफी देर तक तालियां बजती रहीं।
इस भाषण ने दुनिया में भारत की छवि मजबूत की। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में विश्व धर्म संसद के दौरान सबसे दमदार भाषण देकर भारत की पहचान को विश्व में स्थापित किया था। उन्होंने अपने भाषण से भारत के प्रति दुनिया को अपना नजरिया बदलने के लिए मजबूर कर दिया था। उनके भाषण को सुनकर वहां मौजूद सभी लोग बेहद आश्चर्य चकित थे। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि इतनी कम आयु में इतना जबरदस्त भाषण देने वाला वहां पर कोई दूसरा नहीं था। इससे पहले शून्य को लेकर भी ऐसा भाषण किसी ने नहीं दिया था।

11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद जी द्वारा दिए गए भाषण  का अंश -
“अमेरिका के बहनो और भाइयो,
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं।

मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं।
मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।
भाइयों, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं जिसकी आवृत्ति मैं बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं।

।।रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
जिस तरह अलग अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं. वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है, जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं.
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधर्मिता से लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिंकजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं। अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कईं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
(स्वामी विवेकानंद ,शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन
11 सितंबर, 1893)

- पवन सारस्वत मुकलावा
   कृषि लेखक ,

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