पर्यावरण पर गहराता संकट, भविष्य के लिए वैश्विक चुनौती

पर्यावरण यानि हमारे चारों और मौजूद जीव-अजीव घटकों का आवरण, जिससे हम घिरे हुए हैं जैसे कि जीव-जंतु, जल, पौधे, भूमि और हवा जो प्रकृति के संतुलन को अच्छा बनाएं रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है किंतु जब पर्यावरण शब्द के साथ संकट जुड़ गया तब से विश्व में पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मानने की आवश्यकता महसूस हुई इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी। इसके बाद हर वर्ष 5 जून को पर्यावरण शब्द सुनने को मिलता है किंतु आजतक इतने वर्षों में क्या हम जागृति ला पाए है पर्यावरण के प्रति , पर्यावरण कार्य हेतु दुनियाभर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। पर्यावरण और जीवन का अन्योन्याश्रित संबंध है तथापि हमें अलग से यह दिवस मनाकर पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और विकास का संकल्प लेने की आवश्यकता पड़ रही है।
आजकल ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ पर भले ही इस अवसर पर बड़े-बड़े व्याख्यान दिये जाएं, बड़ी बड़ी गोष्ठियां ओर सम्मेलन किये जाएं या हज़ारों पौधा-रोपण किए जाएं और पर्यावरण संरक्षण की झूठी क़समें खायी जाएं, पर इस एक दिन को छोड़ शेष 365 दिन प्रकृति के प्रति अमानवीय व्यवहार करकर क्या हम एक दिन पर्यावरण सरंक्षण करके पर्यावरण को बचा सकते है। यह मानवजाति के लिए सवालिया निशान है।
विकास के चक्कर में लोग यह भूलते जा रहे हैं कि हमारा जीवन प्रकृति की ही देन है, पृथ्वी पर जीवन है तो इसका कारण केवल पर्यावरण की उपस्थिती है। हमारे विकास की भौतिकवादी और पूंजीवादी विचारधारा ने पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। पर्यावरण की चिंता करते हुए यदि हम गोष्ठियों और सभाओं तक सीमित रह जाए तो वह दिन दूर नहीं जब हम अशुद्ध वातावरण में जीने विवश होंगे। हर शहर, हर गांव और हर महानगर में दिन प्रतिदिन गगनचुंबी भवनों का निर्माण हो रहा है, किंतु हमारे जंगलों ओर वनों को बचाने कोई प्रयास नहीं दिख रहा है । उल्टा निर्माण कार्य ओर अपनी स्वार्थ नीति के कारण लगातार वनों का अंधाधुंध कटाई भी किसी से छिपी नहीं है। पूरे के पूरे शहर वीरान हो गए है ,अब बड़े शहरों में शुद्ध हवा की कल्पना भी बेमानी लगने लगी है ,सब जानते हैं कि बढ़ता तापमान और बढ़ता कचरा, अंधाधुंध वनों की कटाई पर्यावरण ही नहीं, विकास के हर पहलू की आने वाली सबसे बङी चुनौती है ।
आज के समय मे विकास के साथ-साथ शहरीकरण, और औद्योगीकरण का तेजी के साथ विस्तार हुआ। विस्तार की उक्त गति में मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन किया। आज हमारे पास शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है। जंगल कटते जा रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट हो रहे हैं, वनों के लिए आवश्यक वन्य प्राणी भी विलीन होते जा रहे हैं। औद्योगीकरण ने खेत-खलिहान और वन-प्रान्तर निगल लिये। वन्य जीवों का आशियाना छिन गया। कल-कारखाने धुआं उगल रहे हैं और प्राणवायु को दूषित कर रहे हैं।
यह सब ख़तरे की घंटी है, हरियाली का नामोनिशान नहीं है, बहुमंजिली इमारतों के जंगल पसरते जा रहे हैं। धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है इसलिए पशु-पक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो गयी हैं। बहुत सी लुप्त होने की कगार पर खड़ी है ,जंगलों से शेर, चीते, बाघ आदि गायब हो चले हैं। वन्य प्राणी प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में सहायक होते हैं। उनकी घटती संख्या पर्यावरण के लिए घातक है। जैसे गिद्ध जानवर की प्रजाति वन्य जीवन के लिए वरदान है पर अब 90 प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं आसमान में दिखाई देने वाले गिद्ध गायब है, पर्यावरण की दृष्टि से वन्य प्राणियों की भूमिका खत्म हो रही है। पर्यावरण का संकट हमारे लिए एंव पूरे विश्व के लिए एक वैश्विक चुनौती के रुप में उभर रहा है. संरक्षण के लिए अब तक बने सारे कानून और नियम सिर्फ किताबी साबित हो रहे हैं. पारस्थितिकी असंतुलन को हम आज भी नहीं समझ पा रहे हैं. पूरा देश जल संकट से जूझ रहा है. जंगल आग की भेंट चढ़ रहे हैं. प्राकृतिक असंतुलन की वजह से पहाड़ो में तबाही आ रही है. प्लास्टिक कचरे का बढ़ता अंबार मानवीय सभ्यता के लिए सबसे बड़े संकट के रुप में उभर रहा है.
अगर एक नजर पर्यावरण संकट पर डालें तो स्पष्ट है कि विश्व की करीब एक चौथायी जमीन बंजर हो चुकी है और यही रफ्तार रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्र की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी। यह खतरा इतना भयावह है कि इससे विश्व के 100 देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जाएगा । पर्वतों से विश्व की आधी आबादी को पानी मिलता है। हिमखण्डों के पिघलने, जंगलों की कटायी और भूमि के गलत इस्तेमाल के चलते पर्वतों का पर्यावरण तन्त्र खतरे में है। विश्व का आधे से अधिक समुद्र तटीय पर्यावरण तन्त्र गड़बड़ा चुका है। जिस तरह लगातार तापमान बढ़ रहा उसी तरह बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ रही है । आधुनिक युग में वायु प्रदूषण, जल का प्रदूषण, मिट्टी का प्रदूषण, तापीय प्रदूषण, विकरणीय प्रदूषण, औद्योगिक प्रदूषण, समुद्रीय प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण, नगरीय प्रदूषण, प्रदूषित नदियाँ और जलवायु बदलाव तथा ग्लोबल वार्मिंग के खतरे लगातार दस्तक दे रहे हैं। पर्यावरण प्रदूषण ने आज इतना विनाशकरी रूप धारण कर लिया है, जिसे देखकर वैज्ञानिको का कहना है की यदि जल्द ही पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्या को खत्म नहीं किया गया, तो सम्पूर्ण मानव जाती का अस्तित्व खतरें में पड़ सकता है।  
पृथ्वी के सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर है इसलिए और भी आवश्यक हो जाता है कि प्रकृति की इन सभी वस्तुओं के बीच आवश्यक संतुलन को बनाये रखा जाये। इस 21वीं सदी में जिस प्रकार से हम औद्योगिक विकास और भौतिक समृद्धि की और बढे चले जा रहे है, वह पर्यावरण संतुलन को समाप्त करते जा रहे है  मुख्यतः पर्यावरण के प्रदूषित होने के मुख्य कारण है – औद्योगीकरण, वाहनों द्वारा छोड़ा जाने वाला धुंआ, नदियों, तालाबों में गिरता हुआ कूड़ा-कचरा, वनों का दोहन ,खेतों में रसायनों का असंतुलित प्रयोग, भू-क्षरण, रासायनिक खाद तथा कीटनाशक दवाओं का उपयोग आदि। रोजमर्रा की जिंदगी में कृत्रिम पदार्थ, तमाम तरह के रासायनिक, वातानुकूलन, खेतों में फर्टीलाइजर और पैस्टिसाइड, कल-कारखाने ये सब मिलकर दिनभर प्रकृति में जहर घोल रहे हैं।
वैश्विक स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाओं का आँकलन है कि ईंधन से निकलने वाली कार्बन डाइ-ऑक्साइड में वृद्धि के कारण अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो जायेंगी  मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति की संपत्तियों को नष्ट कर रहा है जिसके फलस्वरूप आज प्रकृति के अमूल्य कोष समाप्त होने की कगार पर है। जो हमारी भावी पीढ़ी के लिए खतरे का संकेत है।
आज पूरा विश्व पर्यावरण के अकथ संकट से गुजर रहा है। प्रकृति जिन पाँच तत्त्वों जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश के सम्मिश्रण से बनी है ,उनमे से कुछ भी मानव के हस्तक्षेप से नहीं बचा है। प्रकृति का स्वभाविक तरीका है, अपने आप को सम्भालने और सहेजने का। प्रकृति के इस तरीके को अगर हम समझ लें तो वह कभी हमें निराश नहीं करेगी। तेजी से बढती आबादी, कार्बन का उत्सर्जन और कटते पेड़ के कारण पर्यावरण की घोर उपेक्षा हुई है।
हमें यह बात नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण की अनदेखी के कारण ही आए दिन भूकंप और खतरनाक समुद्री तूफान जनजीवन को नष्ट कर रहे है। जब तक पर्यावरण शुद्ध है, तभी तक समाज जीवित है।
आज मौसम चक्र में परिवर्तन ,असमय ओलावृष्टि ,तूफान और वायु-प्रदूषण के साथ हिमखंड ओर ग्लेशियर का तेजी से पिघलना, ग्लोबल वॉर्मिंग, अम्लीय वर्षा का होना, अनावृष्टि ,धरती पर बढ़ रही बंजर भूमि, फैलते रेगिस्तान, जंगलों का विनाश, लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव जंतु, दूषित होता पानी, शहरों में प्रदूषित हवा और हर साल बढ़ते बाढ़ एवं सूखा, ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापमान वृद्धि, ओजोन का क्षतिग्रस्त होना आदि इस बात का सबूत हैं पर्यावरण के लगातार दोहन से आदि अन्य समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं हैं। 
धरती, नदी, पहाड़, मैदान, वन, पशु-पक्षी,आकाश, जल, वायु आदि सब हमें जीवनयापन में सहायता प्रदान करते है। ये सब हमारे पर्यावरण के अंग है। अपने जीवन के सर्वस्व पर्यावरण की रक्षा करना, उसको बनाए रखना हम मानवों का कर्तब्य होना चाहिए। हकीकत तो यह है की स्वच्छ पर्यावरण जीवन का आधार है और पर्यावरण प्रदूषण जीवन के अस्तित्व के सम्मुख प्रश्नचिह्न लगाए खड़ा है 
विकास की दौड़ में पर्यावरण की उपेक्षा हो रही है। इसके लिए मानव समाज को पर्यावरण को बचाने व बढ़ाने की जरूरत है। इससे भविष्य में पर्यावरण संकट कम हो सकता है। मनुष्य जाति के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि हम पर्यावरण प्रदूषण जैसी समस्या को समझें और उसे कम करने हेतु प्रयास करें यहीं समय की मांग है, और मानव जाति के अस्तित्व को बचाने हेतु एकमात्र विकल्प भी है नही तो भविष्य में गहराता पर्यावरण संकट पूरे विश्व के लिए वैश्विक चुनौती पैदा कर देगा।

- पवन सारस्वत मुकलावा
कृषि एंव स्वंतत्र लेखक
सदस्य लेखक ,मरुभूमि राइटर्स फोरम

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