मानवीय क्रियाकलापों के कारण गहराता पर्यावरण संकट, भविष्य के लिए वैश्विक खतरा

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
आज विश्व पटल पर,पर्यावरण की शुद्धता के ऊपर जो संकट गहराया है। वह सब मानव के ही क्रिया कलापों का परिणाम है। जिसने अन्य जीवों के जीवन को भी खतरे की कगार पर खड़ा कर दिया है, समस्त विश्व पटल, अनेक सजीव निर्जीव, सूक्ष्म जीवों के संयोग से बना हुआ है, जिसमें मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसमें सोचने समझने की शक्ति व तर्क के आधार पर अपने कार्य को अंजाम तक पहुंचाने की क्षमता है। आज मानव प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का सपना देखने लगा है। यही कारण है कि आज प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ गया है। जीवनदायिनी प्रकृति कुपित होकर विनाश की ओर अग्रसर है, परन्तु मनुष्य इस असन्तुलन के प्रति अब भी सावधान नहीं हो रहा है, फलतः पर्यावरण सुरक्षा की समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। पर्यावरण और प्राणियों का घनिष्ठ सम्बन्ध है, परन्तु मानवीय महत्त्वाकांक्षाओं, प्रतिस्पर्धाओं के चलते पर्यावरण संकट उत्पन्न हो गया है। प्रदूषण के आधिक्य से पृथ्वी के अनेक जीव और वनस्पतियाँ लुप्त हो गए हैं और अनेक लुप्त होने के कगार पर हैं। यदि पर्यावरण पर संकट इसी गति से बढ़ता रहा तो वह दिन भी दूर नहीं है, जब मनुष्य का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। इसीलिए पर्यावरण सुरक्षा से सम्बन्धित व्यापक अवधारणाएँ दिनों दिन जन्म ले रही हैं, पर्यावरण सुरक्षा की महत्ता आज अन्तरराष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन चुकी है। पर्यावरण चिन्ता की घनघोर निराशाओं के बीच एक बड़ा प्रश्न है कि कहां खो गया वह मनुष्य जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को काटने से रोकता था? गोचरभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिये जल की एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी। जो वन्य पशु-पक्षियों को खदेड़कर अपनी बस्तियां बनाने का बौना स्वार्थ नहीं पालता था। अपने प्रति आदमी की असावधानी, उपेक्षा, संवेदनहीनता और स्वार्थी चेतना को देखकर प्रकृति ने उसके द्वारा किये गये शोषण के विरुद्ध विद्रोह किया है, तभी बार-बार भूकम्प, चक्रावत, बाढ़, सुखा, अकाल जैसे हालात देखने को मिल रहे हैं। आज पृथ्वी विनाशकारी हासिए पर खड़ी है। जल ही जीवन है का जाप करनेवाला मनुष्य स्वयं जल के लिए समस्या बन गया है। निरन्तर जनसंख्या–वृद्धि, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण ने तीव्रगति से प्रकृति के हरे–भरे क्षेत्रों को कंकरीट के जगलों में परिवर्तित कर दिया है। आज श्वास लेने के लिए शुद्ध वायु का अभाव होता जा रहा है, जिससे अनेक प्रकार के रोग जन्म ले रहे हैं, ओजोन परत का क्षरण घातक होता जा रहा है, फिर भी मानव अपनी अज्ञानता के कारण पर्यावरण सुरक्षा के लिए निरन्तर खतरा बढ़ा रहा है। मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। इसी सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए बहुत सारी सरकारों एवं देशों ने इनकी रक्षा एवं उचित दोहन के सन्दर्भ में अनेकों समझौते संपन्न किये हैं। लेकिन इन सबके बावजूद पर्यावरण विनाश की स्थितियां विकराल रूप से बढ़ रही है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है, पिछले कुछ वर्षों में काफी अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि हिमालय, जो दुनिया का सबसे बड़ा जल संग्रह है जिसपर 8 देशों के करोड़ो से अधिक लोग निर्भर हैं, वह हिमखंड तेज़ी से पिघल रहें हैं, नदियाँ और भूजल के स्रोत सूख रहें हैं, जंगल खत्म हो रहें हैं , मनुष्य प्रकृति के साथ अनेक वर्षों से छेड़छाड़ कर रहा है, जिससे पर्यावरण को काफी नुकसान हो रहा है। इसे देखने के लिए हमें ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। धरती पर बढ़ रही बंजर भूमि, फैलते रेगिस्तान, जंगलों का विनाश, लुप्त होते पेड़-पौधे और जीव जंतु, दूषित होता पानी, शहरों में प्रदूषित हवा और हर साल बढ़ते बाढ़ एवं सूखा, ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापमान वृद्धि, ग्लेशियर पिघलना, ओजोन का क्षतिग्रस्त होना आदि इस बात का सबूत हैं कि, हम धरती और पर्यावरण की सही तरीके से देखभाल नहीं कर रहे। आज पूरे भारत वर्ष में पर्यावरण के सम्मुख गंभीर स्थितियां बनी हुई हैं। मनुष्य जब प्रकृति का स्वामी बन जाता है तो वह उसके साथ कसाई जैसा व्यवहार करने लग जाता है।  प्रकृति के भण्डार सीमित हैं और यदि उनका दोहन पुनर्जनन की क्षमता से अधिकमात्रा में किया जाए तो ये भण्डार खाली हो जाएंगे। जल, जंगल और जमीन का एक-दूसरे के घनिष्ट संबंध है। भोगवादी सभ्यता जंगलों को उद्योग व निर्माण सामग्री का भण्डार मानती है। वास्तव में वन तो जिंदा प्राणियों का एक समुदाय है जिसमें पेड़, पौधे, लताएं, कन्द-मूल, पशु-पक्षी और कई जीवधारी शामिल हैं। इनका अस्तित्व एक-दूसरे पर निर्भर है। औद्योगिक सभ्यता ने इस समुदाय को नष्ट कर दिया, वन लुप्त हो गए। जिस तरीके से देश को विकास की ऊंचाई पर खड़ा करने की बात कही जा रही है और इसके लिए औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे तो लगता है कि प्रकृति, प्राकृतिक संसाधनों एवं विविधतापूर्ण जीवन का अक्षयकोष कहलाने वाला देश भविष्य में राख का कटोरा बन जाएगा। हरियाली उजड़ती जा रही है और पहाड़ नग्न हो चुके हैं। नदियों का जल सूख रहा है, कृषि भूमि लोहे एवं सीमेन्ट, कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। विकास के लिये पर्यावरण की उपेक्षा गंभीर स्थिति है। मनुष्य की वर्तमान जीवन-पद्धति के अनेक तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल रहे हैं कि वहां जीवन का अस्तित्व ही कठिन हो जायेगा। अगर एक नजर पर्यावरण संकट पर डालें तो स्पष्ट है कि विश्व की करीब एक चौथायी जमीन बंजर हो चुकी है और यही रफ्तार रही तो सूखा प्रभावित क्षेत्र की करीब 70 प्रतिशत जमीन कुछ ही समय में बंजर हो जायेगी। यह खतरा इतना भयावह है कि इससे विश्व के 100 देशों की एक अरब से ज्यादा आबादी का जीवन संकट में पड़ जाएगा । विश्व का आधे से अधिक समुद्र तटीय पर्यावरण तन्त्र गड़बड़ा चुका है ,यह गड़बड़ी यूरोप में 80 प्रतिशत और एशिया में 70 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।
पर्यावरण के बिगड़ते हालातों के चलते ही विश्व में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या दिन प्रतिदिन अपने चरम को छूने के लिए बेकरार है। वर्तमान में अंधा धुंध वाहनों के प्रयोग व तेजी से बढ़ते औद्योगिकी करण के प्रयास, वनों अथवा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने ओजोन परत, जो कि सूर्य की पराबेगनी किरणों से समस्त जीव जंतुओं, पेड़-पौधों की रक्षा करती है, को भी संकट में डाल दिया है। यदि समय रहते, पर्यावरण संरक्षण हेतु कोई ठोस कदम नहीं उठाये गये तो, भविष्य में पर्यावरण की शुद्धता पर खतरा और अधिक बढ़ सकता है। जिस दिन प्रकृति का कानून बिगड़ गया उस दिन सभी कानून एक और रखे रह जायेंगे, जो कि परमाणु अटैक के परिणामों से भी कहीं गुणा भयानक होंगे।

- पवन सारस्वत मुकलावा
कृषि एंव स्वंतत्र लेखक

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